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Hindi Commentary on the Manifesto

Translated from the meeting notes of 8th March


कोसंबी पाठक मंडल

की ओर से

कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो यानि की साम्यवादी घोषणापत्र की एक छोटी समीक्षा


मैनिफेस्टो को समझने के लिए उसका इतिहास थोडा समझना पड़ेगा, समाजवाद के इतिहास में जाना पड़ेगा


सामाजिक वर्ग नहीं होने चाहिए, वर्गभेद नहीं होने चाहिए, ये सोच कार्ल मार्क्स से नहीं उनसे काफी पहले से है


नया यह है की पूंजीवाद के बारे में सोचना, वैज्ञानिक तरीके से, और पूँजीवाद क्या है और उसे बदला कैसे जा सकता है, यह नयी बात है


पूँजीवाद के अन्दर जो जो चीज़ें होती है, जिससे पूंजीवादी और मजदूर के बीच की दूरी कभी कम नहीं होती, वो चीज़ें इस दुनिया में कैसे आयी, इसका ऐतिहासिक विश्लेषण कार्ल मार्क्स ने किआ, और वो इस मैनिफेस्टो में आपको मिलेगा


पूँजीवाद की सबसे मज़ेदार चीज़ है, जिससे अमीर अमीर होता है और गरीब गरीब, निजी संपत्ति सोचने वाली बात यह है की जिस चीज़ को हम निजी संपत्ति बोलते हैं वो क्या है


निजी संपत्ति का मतलब वो संपत्ति नहीं है जो आपकी है जैसे आपके कपडे या आपकी साइकिल, मगर वो जिससे आप पैसा बना सकते हैं, जैसी की आपकी ज़मीन या आपका फैक्ट्री, इस तरह के निजी संपत्ति से पैसा बनाने के लिए दूसरे लोगों की मजदूरी लगती है, इस तरह की निजी संपत्ति का आईडिया काफी नया है, काफी मॉडर्न है


पुराने ज़माने में जब हम सामंतवाद में रहते थे, सारी संपत्ति बादशाह की होती थी, सम्राट की होती थी, वोह ज़मीन अपने मंत्री, अपने नवाबों को किराए में देता था, वो नवाब ज़मीन अपने ज़मींदारों को, और ज़मींदार अपने किसानो को किराए पे देता था, पूरा समाज किराए पे चलता था, “निजी संपत्ति” का कांसेप्ट पूंजीवाद में आया


कहने का मतलब यह है जो कांसेप्ट इंसानों ने बनाया है वो इन्सान बदल भी सकते हैं


लोग अपना इतिहास खुद बनाते हैं


सामन्तवाद पूजीवाद में कैसे और क्योँ बदला? उससे किसे फायदा हुआ और किसे नुक्सान? और भले हम अब पूँजीवाद को क्योँ बदलें? यह समाजवाद क्या होता है जिसमे हम जाना चाहते हैं? उससे किसका फायदा होगा और किसका नुकसान? यह सब इस मैनिफेस्टो में मिलेगा आपको


मैनिफेस्टो की पहली पंक्ति कम्युनिज्म शब्द का प्रयोग करती है, यहाँ बता दें की कम्युनिज्म या हिंदी में साम्यवाद, कार्ल मार्क्स का तरीका था उस आन्दोलन को नाम देने का जो उस वक़्त उन्होंने पूँजीवाद के ऐतिहासिक विश्लेषण के सहारे पूँजीवाद को हराने के लिए बनाया, यह कह सकते हैं साम्यवाद एक तरह का समाजवादी आन्दोलन है, जो की ऐतिहासिक वैग्रानिक विश्लेषण के बुन्दियद पे चलता है


घोषणापत्र ऐतिहासिक भौतिकवाद की व्याख्या करता है: सभी समाज का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है। वर्ग संघर्ष से वर्ग समाज हमेशा भयभीत रहता है क्योंकि जिनका शोषण हो रहा है वे अपने शोषण का विरोध करने के लिए बाध्य होते हैं


इसका मतलब क्या है? इसका मतलब ये है की इतिहास में हर बार समाज का विभाजन हुआ है बोहोत आधारों पर, इनमे एक आधार है वर्ग


वर्ग का मतलब होता है किसके पास क्या संपत्ति रहेगा और कौन उस संपत्ति को पाने के लिए मजदूरी करेगा, कौन मेहनत करेगा, और कौन दूसरे की मेहनत से पैसे बनाएगा


इन समाजों में सबसे नया समाज है पूँजीवादी समाज, जिसमे हर एक वास्तु का बाज़ार में दाम है, आपकी मेहनत का भी, जिसमे कुछ पूंजीवादियों के पास सारी संपत्ति है, और बाकी सब लोग उनके लिए वेतन पे नौकरी करते हैं, उनका पैसा अपने मेहनत से बढ़ाते हैं


समाजवाद का अर्थ है वर्गसत्ता को ख़तम कर देना, वर्ग नामक चीज़ को मिटा देना


कार्ल मार्क्स कहते हैं की जब दुनिया भर में राजा महाराजाओं को हराकर व्यापारिओं और उद्द्योगपतियों की सत्ता बनी, यह एक पूंजीवादी क्रांति थी और कि पूंजीवाद सामंतवाद को समाप्त करके श्रम और धन को संगठित करने की सबसे शक्तिशाली प्रणाली रही है। ज़रा सोचिये इसके बारे मे, सौ साल के पूंजीवादी समाज ने दुनिया को कहाँ से कहाँ पोहोचा दिया जो हज़ार सालों में राजा महाराजा नहीं कर पाए


तात्पर्य यह है की हम पूंजीवाद को हटाकर पीछे नहीं जा सकते, सिर्फ आगे जा सकते हैं


कार्ल मार्क्स कहते हैं की आज तक के क्रांतियों में यह पूंजीवादी क्रांति सबसे ताकतवर थी, इसने पुराने तरीकों को बोहोत भारी स्तर पर ख़तम कर दिया, भारत में कि पूंजीवाद ने सामंतवाद को पूरी तरह से समाप्त नहीं किया है (भारत में जातिप्रथा अभी भी है), फिर भी पूंजीवाद अब सामंतवाद से अधिक शक्तिशाली है।


पूर्व रूपों जैसे मर्केंटिलिज़्म और गिल्ड संरचनाओं पर चर्चा की गई थी और पूंजीवाद द्वारा इन प्रणालियों को क्यों ध्वस्त किया गया था इस बारे में भी। पूंजीवाद सभी सामाजिक संबंधों को बदल देता है, जैसे कि धर्म, देश, अन्य सभी कट्टरता भी और स्वतंत्रताएं भी और इसे “बाजार की स्वतंत्रता” के साथ बदल देती हैं। हर चीज़ का दाम है इसमें| मार्क्स का तर्क है कि पूंजीपति उत्पादन की प्रणालियों में लगातार प्रतिस्पर्धा और क्रांति के बिना अस्तित्व में नहीं रह सकता, उसे दुसरे पूंजीपति उद्योगपति कच्चा चबा जाएँगे, इसलिए पूँजीवाद हमेशा आगे बढता रहता है, अपने आपको और तेज़ और निष्ठुर, और कठोर, और उत्तेजित करता है, ऐसा करने से यह समाज के भीतर हजारों वर्षों के पूर्वाग्रह को मिटा देता है

मार्क्स का कहना है कि पूंजीपति सभी पूर्ववर्ती इतिहास की तुलना में 100 वर्षों में अधिक उत्पादक बल बनाता है।

यह सब करके पूंजीवादी समाज अपने स्वयं के निधन के लिए मंच तैयार करता है, अपना दुश्मन खुद पैदा करता है। पूंजीवाद टिकाऊ नहीं है, वो सिर्फ आगे बाद सकता है, और यह करके वो बार बार बाज़ार में अतिउतपादन का संकट लता है, दूसरा वो करोड़ों मजदूरों का खून तो चूसता है पर उन्हें एक वर्ग में संघटित भी करता है, उन्हें मजदूर होने का एहसास दिलाता है, मजदूरों के भीतर जो भी अलग है वो मिटा देता है, मजदूरों का वर्ग (और बढ़ता जन) को एहसास होता है की दुनिया भर का पैसा उनके मेहनत से बना है, उनसे लूटा गया है, और फिर यह मजदूर वर्ग पूंजीपति वर्ग के साथ सिर्फ दुश्मनी का रिश्ता रख सकते हैं


पर हर पूंजीवादी समाज का दुश्मन मजदूर का हितैषी भी नहीं है, कुछ लोग हैं जो वापस जाना चाहते हैं

जैसे की पूंजीवाद राष्ट्रवाद के लिए भी समस्या प्रस्तुत करता है। प्रतिक्रियावादी बनाम रूढ़िवादी (रूढ़िवादी पूंजीवाद को संरक्षित करना चाहते हैं, लेकिन प्रतिक्रियावादी उस तरह से वापस जाना चाहते हैं जैसे पूंजीवाद से पहले चीजें थीं, प्रतिक्रियावादी वही होते हैं जो पारंपरिक प्रणाली में शक्तिशाली थे)। पूँजीवाद से घृणा करने वाला प्रत्येक व्यक्ति आप मजदूरों का दोस्त नहीं है, समाजवाद के पक्ष में नहीं है।


इसलिए समाजवादी समाज वर्गविहीन होगा, वो पुराना समाज नहीं होगा


घोषणापत्र का अध्याय 2 इस प्रश्न से शुरू होता है कि कम्युनिस्ट का हित क्या है? कम्युनिस्ट आंदोलन का सर्वहारा वर्ग (मजदूर वर्ग) के समान हित है। वे सर्वहारा वर्ग या मज़दूर वर्ग की पार्टियों से अलग नहीं हैं। अब अगर ऐतिहासिक रूप से देखा जाए तो सोचने की बात यह है की ऐसा क्योँ नहीं हुआ? भारत में खासकर? फिर घोषणापत्र कहता है की कम्युनिस्ट आंदोलन सर्वहारा वर्ग के बाहर विचारधारा या किसी अतिरिक्त-हितों से प्रेरित नहीं है।


फिर घोषणापत्र उन सभी आपत्तियों के बारे में बात करता है जो पूंजीपति समाजवाद पे मारते हैं, सबसे पहला सवाल, संपत्ति का सवाल।


समाजवादियों का क्या मतलब है जब वे कहते हैं कि वे संपत्ति को मिटा देना चाहते हैं? वे पूंजीवादी संपत्ति के साथ दूर करने की बात कर रहे हैं। यह वही बात है जो पूंजीवादी ने तब की थी जब उन्होंने सामंती संपत्ति को पूंजीवादी संपत्ति में बदल दिया। श्रम एक वस्तु बन गया है और मार्क्स इस श्रम पर बाज़ार से जो दाम लगता है इस चीज़ को ख़त्म कर देना चाहते हैं, क्योंकि मनुष्य को उसके श्रम का पूरा हिस्सा मिलना चाहिए, ना की एक बाज़ार से भाव। उसी नस में समाजवादी/साम्यवादी लोगों के अमीर होने का विरोध नहीं है, यह केवल श्रम का शोषण करके अमीर बनने वाले लोगों का विरोध है, और श्रम का शोषण किए बिना केवल इतना धन है जो आप जमा कर सकते हैं।


हम घोषणापत्र में सूचीबद्ध अन्य आपत्तियों पर चर्चा कर सकते हैं, जैसे कि हाँ साम्यवाद संस्कृति को बदल सकता है, लेकिन यह केवल उस संस्कृति को बदलने वाला है जो वर्ग समाज से आता है और वह संस्कृति बहुत कुछ हानिकारक है। उदाहरण के लिए, परिवार एक व्यवहारिक और शोषणकारी संस्था खुद बना उतना नहीं जितना उसे पूंजीवाद ने बनाया है। शिक्षा और नैतिकता बच्चों को ब्रेनवॉश करने के लिए डिज़ाइन की गई है, इसलिए बेशक इसे बदलने की जरूरत है। अन्य पूँजीवादियों की आपत्तियों की समाजवाद पर भी चर्चा हुई है, विशेष रूप से लोगों के नियंत्रण को खोने की चिंता, क्योंकि वर्तमान में बहुत से लोगों को, विशेष रूप से महिलाओं को वस्तुओं के रूप में शोषण किआ जाता है। पूंजीवादियों को डर है समाजवादी समाज में महिलाओं पर से उनका नियंत्रण खतरे में आ जाएगा


यह सब डर तो बोहोत अच्छी बात है


घोषणापत्र इन सब पूंजीवादी आपत्तियों को नकारने के बाद उन सब दुसरे तरह के “समाजवादियों” की बात करता है जो पूँजीवाद से तो दुश्मनी रखते हैं, पर सिर्फ अपना उल्लू सीधा करना चाहते है, या फिर किसी और कारनवश, वर्ग समाज को पूरी तरह उखाड़ना नहीं चाहते


इनमे से कुछ तो सचमुच के समाजवादी है जिन्हें बस किसी भी तरह की क्रांति से परहेज़ है, वो पलायन करके दूसरी जगह समाजवाद बनाना चाहते हैं, कुछ पुराने सामंती है जिन्हें पूँजीवाद से चिड है और वो वापस अपने ज़मींदारी के दिनों में जाना चाहते हैं, कुछ छोटे दूकानदार है जिन्हें बड़े उद्योगपतियों से तो दुश्मनी है, पर वो सिर्फ अपना माल बनाना चाहते हैं, और कुछ भले मानुस हैं जिन्हें पूँजीवाद की बुराइयाँ तो दिखती है पर वो उसमे ही अलग अलग तरीकों से मजदूरों का भला करना चाहते हैं पर उनके शोषण के ढांचे से लड़ना नहीं चाहते


मार्क्स ने पूंजीवाद को उखाड़ फेंकने के लिए प्रोत्साहित किया है, न कि उससे भाग जाने को, या फिर पुराने ज़माने के सपने देखने को। यह उखाड़ना कैसे होगा यह आप सब के सोचने का काम है, और जब तक यह उखाड़ा नहीं जाएगा आपका और आपके बच्चों का शोषण होता रहेगा, आप दूसरों की नौकरी करके उनका पैसा बनाते रहेंगे, या फिर किस्मत अच्छी हो गयी तो दूसरों का शोषण करेंगे


या तो नौकरी करेंगे या नौकर रखेंगे, और इससे एक बेहतर दुनिया बनायीं जा सकती है


यह हो सकता है

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